बचपन, बारिश और चाय
गरम-गरम सांसों की सरसराहट ने कहा,हाथ में गरम-गरम चाय की एक जोड़ी प्याली उठाओ. चलो, बस चलो, चल दो, लोग सुनें कदमों की आहट. एक जो तुम्हारे पैर हों, दूसरे तुम्हारे साथी के. हम चले, तभी दो बूंदें आसमान से उतरीं, गिरने लगीं तो अधखुली आंखों ने,पलकों ने, गैर-अघाई बाहों ने उन्हें लोक लिया...धीरे-धीरे बारिश बढ़ी, भीगने लगे हम, मन में आग दहकती हुई, पानी पड़ा और उठा धुआं. यादों का ऐसा धुआं, जिनमें कुछ सीलने, सुलगने की महक शामिल है...याद आया बचपन, धुंधलाया पर नए-नकोर बुशर्ट जैसा...चेहरे पर छा गया एक रुमाल, यादों की मीठी महक से महकता हुआ...
बहुत दिन बाद जुर्राबें उतार, पार्क की हरी घास पर नंगे पैर टहलने का दिल किया...दफ्तर का वक्त था, दस्तूर भी न था,फिर भी जूते फेंके टेबल के नीचे, मैं और वो...नहीं तुम नहीं, वो भी नहीं...एक और साथी...पार्क की ओर चल दिए...हम चाय की प्याली लिए पार्क की एक बेंच की दीवाल पर ऊपर उठंगे हुए...साथी से कहा, घास पर चलें पर वो नहीं माना...उसके कपड़े गंदे हो जाते...मैं नीचे आ गया...वहां ढेर सारा पानी था, गंदगी भी रही होगी पर नहीं...घास महक रही थी...पानी भी मुझे अपनी ओर खींच रहा था...मैं एक बड़ा--कमाऊ और जिम्मेदार इंसान नहीं, छोटा सा बच्चा बन गया था...बारिश थम गई है...मैं फिर जुर्राबें पहनकर दफ्तर में आ गया हूं...तुम भी साथ नहीं हो, बस कंप्यूटर है और आठ घंटे की नौकरी...बारिश फिर से आएगी न...मैं भीगूंगा और तुम भी...
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