पितर देवो भव!
सनातन हिन्दू धर्म में मान्यता है कि माता-पिता को साक्षात् जीवित देवता माना गया है। इस नश्वर शरीर को छोड़ने के बाद में बैंकुंठ में देवताओं के समूह में शामिल हो जाते हैं और वहीं से अपने बच्चों, अपने परिवार को आशीर्वाद देते रहते हैं, उनका मंगल करते हैं। किन्तु तेजी से बदलते समय के साथ पितर देवो भव की यह श्रेष्ठ परम्परा भी बदलती जा रही है। पहले जहां लोग शुभ कार्य के लिए जाते समय पितों का चित्र, पितरों को पानी साथ रखते थे, वहीं आज की तथाकथित आधुनिक युवा पीढ़ी इसे दकियानूसी परम्परा करार देते हुए इसे भूलती जा रही है। अपने को अति सभ्य मानने वाली नयी पीढ़ी के पॉकेट और बैग में उनके पसंदीदा हीरो, हिरोइन, क्रिकेटरों के चित्र मिलते हैं। अपने पितरों के फोटो होना, उन्हें नियमत: प्रणाम करना तो दूर की बात है, कितने लोगों को तो अपने दादा, परदादा, दादी, परदादी के नाम तक याद नहीं हैं।
पश्चिमी सभ्यता के रंग में डूबी युवा पीढ़ी बड़े-बुजुर्गों की बात सुनने और मानने को तैयार नहीं है। बिना रोक-टोक के, अपने ढंग की स्वच्छंद जिन्दगी जीने के लिए सभी सीमायें, लक्ष्मण रेखा पार करने को उतारू है। बड़े-बुजुर्ग भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। पितृपक्ष में 15 दिन तक तर्पण करने, अग्रासन निकालने, उनकी तिथि पर नियमपूर्वक श्राद्ध कर्म करने को अब झंझट समझा जाने लगा है। अब लोग इससे बचने के लिए गया आदि तीर्थों में पितरों को बैठा देते हैं। ताकि श्राद्ध-तर्पण कर्म से मुक्ति मिल जाए। ऐसे में उनके बच्चे क्या सीखेंगे। इतिहास बताता है कि पितरगण चाहे धरती पर हों, चाहे स्वर्गलोक में, अपने परिवार का मंगल करते रहते हैं। किन्तु दु:खद पहलू यह है कि आज उन्हें समाज भूलता जा रहा है। पितृपक्ष के मौके पर समाज के वरिष्ठ लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने बच्चों को इस बारे में जानकारी देंगे ताकि श्रद्धा और विश्वास की मंगलकारी यह पुनीत परम्परा कायम रहे और जनमानस का हित होता रहे।
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